विश्व को राह दिखाने में सक्षम भारतीय मूल्य, मानसिक दासता से मुक्ति की राह
देश की स्वतंत्रता के 76वें वर्षगांठ के अवसर पर प्रधानमंत्री ने देश को विकसित बनाने की दिशा में आगे बढ़ने का आह्वान किया। इस क्रम में उन्होंने देशवासियों से मानसिक दासता से मुक्ति पाने की बात भी कही। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस मानसिक गुलामी से मुक्ति का मार्ग क्या है? दरअसल किसी भी समस्या के सही कारणों की पहचान करने के बाद ही उसके समाधान का मार्ग प्रशस्त होता है। अत: सर्वप्रथम हमें यह समझना होगा कि आजादी के साढ़े सात दशक बीतने के बाद भी देश में मानसिक दासता की समस्या क्यों बनी हुई है? एक कारण तो निस्संदेह यही है कि मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक देश को एक दीर्घ कालखंड गुलामी में गुजारना पड़ा। इस गुलामी ने देशवासियों के आत्मगौरव को कुचलने का काम किया। लेकिन आजादी के बाद इसमें जैसा बदलाव आना चाहिए था, वह नहीं आया।
आजाद भारत की सरकारों ने शासन का जो स्वरूप रखा और जिन नीतियों को आगे बढ़ाया उनमें विकास की दृष्टि भले रही हो, भारत के सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं था। भारतीयता पर आधारित नीतियों की रचना करने के बजाय समाजवादी आर्थिक माडल अपना लिया गया। हिंदी राजभाषा तो बनी, लेकिन साथ में अंग्रेजी भी दमखम के साथ बनी रही। वस्तुत: शासन के स्तर पर आम जनमानस को ऐसा कुछ नहीं दिखा जो उसके दबे-कुचले आत्मविश्वास को बल दे सके और उसके आत्मगौरव को जगा सके।
देश को यदि मानसिक दासता की व्याधि से मुक्ति पानी है, तो सबसे पहले अपने ‘स्व’ को जगाना होगा। स्वभाषा और स्वदेशी का विकास इसकी पहली कड़ी है। सनातन संस्कृति अपने मूल रूप में वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण रही है, लेकिन हम विज्ञान के मामले में इसलिए पीछे रह गए, क्योंकि यह शिक्षा हमें स्वभाषा में उपलब्ध ही नहीं हुई। अत: प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो, यह सुनिश्चित करने की जरूरत है। अभियांत्रिकी, विज्ञान, चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं में अध्ययन की व्यवस्था की जानी चाहिए। सुखद है कि एआइसीटीई द्वारा हाल में 12 भारतीय भाषाओं में अभियांत्रिकी की पढ़ाई के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं। इसके अलावा सरकारी कामकाज से लेकर न्यायतंत्र तक भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ावा देने की जरूरत है। हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं का विकास न केवल सांस्कृतिक तौर पर देश को सुदृढ़ करेगा, अपितु देशवासियों में व्याप्त अंग्रेजी के मोह को समाप्त करने में भी सहायक सिद्ध होगा। अंग्रेजी के मोह से एक बार देशवासी मुक्त हो गए तो फिर मानसिक दासता के अन्य आयामों से मुक्ति पाने में भी उन्हें समय नहीं लगेगा।
स्वभाषा और स्वदेशी के अलावा देश के इतिहास-बोध को ठीक करना होगा। भारत के वैभवशाली अतीत को दर्शाने वाले हमारे प्राचीन ग्रंथों को मिथकीकरण के छल से बाहर निकालकर इनमें मौजूद राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, विज्ञान आदि विविध विषयों से संबंधित सामग्री को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर छात्रों तक पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए। इन ग्रंथों में मौजूद उच्च जीवन-मूल्यों का संदेश भी देश के लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था होनी चाहिए। यहां अतीत गौरवबोध से दूर रहने वाली वामपंथी सोच को भी नकारने की आवश्यकता है, क्योंकि अतीत पर गौरव वही करते हैं, जिनका अतीत उस योग्य होता है।
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