मोदी सरकार 2.0 का एक साल: मोदी के विकल्प की तलाश एक साल बाद भी नहीं कर सका विपक्ष
नई दिल्ली, 25 मई 2020,2014 में आम चुनावों के बाद जब पहली बार मोदी सरकार बनी तो कमोबेश विपक्ष की एक मौजूदगी नजर आती थी. लेकिन 5 सालों बाद 2019 में जब दोबारा मोदी सरकार बनी तो उम्मीद नजर आती थी. लेकिन जब पांच सालों बाद मोदी सरकार दोबारा बनी तो विपक्ष और कमजोर ही हुआ.
बीजेपी ने 2019 के चुनावों में अकेले तीन सौ के आंकड़ों को पार किया और 303 सीटों पर जीत का परचम लहराया. यही वजह रही कि मोदी सरकार ने इसका भरपूर फायदा उठाया और दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही ताबड़तोड़ कई बड़े फैसले लिए. मोदी के नेतृत्व और अमित शाह की रणनीति ऐसी रही कि राज्यसभा में संख्या कम होने के बाद भी कई अहम बिल पास करवाए.
एक लाइन में कहें तो हिंदुस्तान में विपक्ष की स्थिति बेहद खराब है. और यह देश के लोकतंत्र के लिए किसी भी लिहाज से अच्छा नहीं है. ऐसा नहीं है कि विपक्ष खड़ा होने की कोशिश नहीं कर रहा है. विपक्षी एकजुटता की कोशिश तो कई हुई हैं लेकिन राजनेताओं की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा उसे अंजाम तक पहुंचने नहीं दे रही है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस जनता का विश्वास जीतने की कई जुगत करता है लेकिन हर बार उनके हाथ निराशा ही लगती है.
कांग्रेस ने कोशिश तो की लेकिन सफल नहीं रही
सोनिया से लेकर राहुल और प्रियंका तक कांग्रेस ने अपने सारे चमकदार चेहरे मैदान में उतार दिए लेकिन मोदी लहर को रोकने में सभी नाकामयाब रहे. राहुल गांधी ने कई मौकों पर मोदी सरकार को घेरने और अपनी छवि चमकाने की कोशिश की लेकिन मेहनत सफल नहीं हुई.
30 मई को मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक साल पूरे होने जा रहे हैं. लेकिन पिछले 12 महीनों पर नजर डालें तो विपक्ष का एक भी ऐसा आंदोलन नजर नहीं आता जिसे जनसमर्थन हासिल हुआ हो. सीएए और एनआरसी को लेकर लोगों में गुस्सा जरूर नजर आया लेकिन विपक्ष उन मुद्दों पर भी खुलकर सामने आने से बचने की कोशिश करता ही नजर आया.
विपक्ष की एक बड़ी परेशानी यह भी है
विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि जो भी क्षत्रप थे वे या तो अपने गढ़ संभालने में लगे हैं या फिर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं. पिछले एक साल में विपक्ष के कई बड़े नेता बीजेपी में शामिल हुए. इसके अलावा प्रांतीय दलों की स्थिति भी बहुत कमजोर हो चलीहै.
यूपी में सपा-बसपा हो या बिहार में आरजेडी-जेडीयू सभी की हालत एक जैसी ही है. टीएमसी, टीडीपी, बीजेडी, एआईडीएमके जैसी पार्टियां जो कभी केंद्र को आंखें दिखाया करती थीं वे भी राज्यों तक ही सीमित होकर रह गई हैं. यही वजह है कि राज्यों में चुनाव से पहले गठबंधन की चर्चा तेज हो जाती है.
ये बड़े चेहरे अपना राज्य संभालने में ही फंसे
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के बाहर कदम रखने की कोशिश की थी. लेकिन पंजाब, हरियाणा में मिली हार, दिल्ली में कम होते वोटों के अंतर और कोरोना संकट ने अरविंद केजरीवाल को दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया. यही वजह है कि महागठंधन के मंच पर कई बार शिरकत कर चुके केजरीवाल का रुख पलटा-पलटा नजर आ रहा है.
इसी तरह ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनावों को लेकर परेशान हैं. राज्य में बीजेपी की बढ़ती ताकत उन्हें केंद्र तक पहुंचने नहीं दे रही है. फिलहाल वह अपना राज्य बचाने में जुटी हुई हैं. इसी तरह शरद पवार जैसा बड़ा चेहरा अपनी खिचड़ी सरकार को बनाए रखने में फंसे हुए हैं. महाराष्ट्र में बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए शरद पवार ने शिवसेना और कांग्रेस को एक साथ तो कर लिया लेकिन कई मुद्दों पर दोनों पार्टियों के मत अलग-अलग रहते हैं.
केन्द्र के साथ-साथ राज्यों में भी मजबूत है बीजेपी
लोकसभा चुनावों के बाद चार राज्यों (महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली और हरियाणा) में विधानसभा चुनाव हुए. इनमें से महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में तो बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा लेकिन हरियाणा में बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब रही. महाराष्ट्र में भी बीजेपी सबसे बड़ा दल रही लेकिन विपक्ष में बैठना पड़ा.
एमपी और कर्नाटक दो ऐसे राज्य हैं जहां लोकसभा से पहले बीजेपी चुनाव हार गई थी लेकिन केंद्र में मोदी सरकार के दोबारा आते ही दोनों राज्यों में बीजेपी ने सत्ता वापस हासिल कर ली. इसी वजह से ब्रांड मोदी में लोगों का विश्वास और मजबूत हो जाता है.
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