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कन्हैया कुमार में करिश्मा देख रहे राहुल गांधी, जमीनी हकीकत बयां कर रही है कुछ और कहानी

बेगूसराय जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के कांग्रेस में आने की खबरों के बीच सोशल मीडिया पर कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गई हैं। कांग्रेस में भरोसा रखने वाले सोशल मीडिया यूजर्स उम्मीद कर रहे हैं कि कन्हैया पार्टी के लिए शुभ साबित होंगे। लोग यहां तक कह रहे हैं कि कन्हैया कुमार कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव जैसे युवा चेहरों के जाने से बने स्पेस की कमी को पार्टी में पूरा करेंगे। कन्हैया कुमार की रैलियों में उमड़ने वाली भी भीड़ को पैमाना बनाकर लोग कन्हैया कुमार को जननेता तक कह रहे हैं। लोकतांत्रिक सिस्टम में उसी नेता की धाक होती है जिसे जनता का सपोर्ट होता है। कन्हैया कुमार से कांग्रेस इतनी ज्यादा उम्मीदें लगाए हुए है तो आइए जरा पुराने रेकॉर्ड को देखकर समझने की कोशिश करते हैं कि यह युवा नेता वाकई जननेता हैं या केवल यूनिर्वसिटी के एक खास वर्ग के बीच लोकप्रिय हैं। गिरिराज सिंह के सामने कन्हैया चारो खाने चित लोकतांत्रिक सिस्टम में किसी भी नेता की ताकत का असली पैमाना आम चुनाव में मिलने वोटों से होती है। प्राप्त वोटों के आधार पर ही तय होता है कि कौन सा राजनीतिक चेहरा जननेता है। जननेता के इस पैमाने पर कन्हैया कुमार फेल दिखते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई ने कन्हैया कुमार पर भरोसा जताते हुए बिहार के लेनिनग्राद से कन्हैया कुमार को प्रत्याशी बनाया था। युवा वाम नेता का मुकाबला सत्ताधारी बीजेपी के कद्दावर नेता और केंद्रीय मंत्री और गिरिराज सिंह से था। गिरिराज सिंह ना-नुकुर के बाद बेगूसराय लोकसभा सीट से भाग्य आजमाने पहुंचे थे। इसके बावजूद गिरिराज सिंह ने सीपीआई प्रत्याशी कन्हैया कुमार को चार लाख से अधिक मतों के अंतर से हरा दिया। बेगूसराय में कुल 12.17 लाख वोट डाले गए, जिसमें से गिरिराज को 6.88 लाख वोट मिले और जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार को 2.68 लाख वोटों से संतोष करना पड़ा। साल 2014 में बेगूसराय सीट पर दूसरे नंबर पर रहे आरजेडी नेता और महागठबंधन उम्मीदवार तनवीर हसन को 1.97 लाख वोट मिले और वह तीसरे पायदान पर रहे। बेगूसराय में 20,408 मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना। कन्हैया के चहरे पर भूमिहारों को भी भरोसा नहीं भारत में जाति आधारित राजनीति को नकारा नहीं जा सकता है। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में वोटिंग के दौरान तमाम मुद्दे धरे के धरे रह जाते हैं और प्रत्याशी की जाति ही मुद्दे का केंद्र बिंदु बन जाता है। भारत में लालू प्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, सोनेलाल पटेल, उपेंद्र कुशवाहा जैसे कई नाम हैं जो जाति आधारित राजनीति में जननेता माने जाते रहे हैं। इस पैमाने पर अगर कन्हैया कुमार की पडताल की जाए तो यहां भी वह पिछड़ते नजर आते हैं। उदाहरण के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय सीट को चुनते हैं। बेगूसराय में कुल जनसंख्या में भूमिहार सबसे ज्यादा (19 प्रतिशत) हैं। उसके बाद मुस्लिम 15 प्रतिशत और यादव 12 प्रतिशत के आसपास हैं। अनुसूचित जाति के लोग भी अच्छी-खासी संख्या में हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद स्पष्ट हो गया था कि बेगूसराय के भूमिहारों ने कन्हैया को अपना नेता नहीं स्वीकारा था। गिरिराज सिंह को करीब 7 लाख वोट मिलना साबित करना है कि बिहार के भूमिहारों के बीच कन्हैया की स्वीकार्यता नहीं है। रैलियों में भीड़ वोट नहीं दिलाते! यह सच है कि कन्हैया कुमार की रैलियों और जनसभाओं में भीड़ जुटती है, लेकिन यह कई मौकों पर साबित हो चुका है कि यह भीड़ वोट में तबदील नहीं हो पाता है। नवभारत टाइम्स.कॉम के संपादक आलोक कुमार कहते हैं कि रैलियों में भीड़ जुटना जननेता होने का एक पहलू तो हो सकता है, लेकिन यह पैमाना नहीं हो सकता है। उन्होंने उदाहरण के तौर पर बताया कि अक्सर चुनाव प्रचार के दौरान एक्टर-सिंगर आदि को बुलाया जाता है। उन रैलियों में काफी संख्या में लोग जुटते हैं, लेकिन वह सभी वोट में तबदील नहीं होते हैं। उन्होंने आगे कहा कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों में जनसैलाब देखने को मिलता था, लेकिन वह एनडीए के प्रत्याशियों को जीतने लायक वोट नहीं दिला पाए। ठीक इसी तरह 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की साझा रैलियों में भी भारी संख्या में लोग जुटते देखे गए थे, लेकिन चुनाव परिणाम आने पर पता चला कि इनके गठबंधन को इतनी भी सीटें नहीं आई कि वह सही तरीके से विपक्ष की भी भूमिका निभा पाएं। आलोक कुमार कहते हैं कि यह सही बात है कि कन्हैया कुमार की भाषण शैली लोगों को खिंचती है, लेकिन इसमें भी हमें ध्यान देने की जरूरत है कि क्या इसमें सर्व समाज के लोग होते हैं या किसी खास वर्ग के लोग। देश विरोधी नारों के चलते कन्हैया की सर्व स्वीकार्यता नहीं कन्हैया कुमार दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी (JNU) में हुई देश विरोधी नारेबाजी की घटना के बाद सुर्खियों में आए थे। यह मामला अभी कोर्ट में विचाराधीन है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि देश विरोधी नारेबाजी में कन्हैया कुमार का नाम आने के बाद यह तय हो चुका है कि उनकी सर्वस्वीकार्यता समाप्त हो चुकी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद राजनीति में राष्ट्रवाद एक अहम मुद्दा बन चुका है। कांग्रेस लगातार विपक्षी दलों पर हमले करती रही है कि ये लोग राष्ट्र विरोधी ताकतों के साथ मिले हुए हैं। जननेता बनने के इस पैमाने पर भी कन्हैया फेल दिखते हैं। हालांकि देखना दिलचस्प होगा कि वह खुद को राष्ट्रविरोधी नारेबाजी की छवि से कैसे अलग कर पाते हैं। 2020 विधानसभा चुनाव में भी महागठबंधन को फायदा नहीं दे पाए कन्हैया 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सीपीआई महागठंधन का हिस्सा थी। चुनाव से कुछ महीने पहले कन्हैया कुमार कांग्रेस विधायक शकील अहमद खान के साथ मिलकर पूरे राज्य में रैलियां करके एंटी बीजेपी माहौल बनाने में जुटे थे, लेकिन इसका कुछ खास फायदा नहीं हुआ। इस वक्त नीतीश कुमार की अगुवाई में बिहार में एनडीए की सरकार चल रही है और बीजेपी 74 सीटें हासिल कर एनडीए गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है। जननेता बनने की इस परीक्षा में भी कन्हैया फेल हो चुके हैं। वाम दलों की तरह देश में सिमट रही है कांग्रेस! जननेता बनने के इन पांच पैमाने की टेस्टिंग के आधार पर समझा जा सकता है कि कन्हैया कुमार से कांग्रेस इतनी उम्मीदें क्यों लगाए हुए है। हालांकि राजनीति में कुछ निश्चित नहीं होता है। इस वक्त पूरे देश में वामदलों का प्रभुत्व कम हो रहा है। कांग्रेस की भी कमोबेश वही हालत है। ऐसे में कन्हैया कुमार के लिए यहां भी बहुत ज्यादा मुफीद माहौल मिले इसकी कम ही संभावना है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि पूरे देश में किसी पार्टी की पहुंच है तो वह कांग्रेस ही है।

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