नई सरकार का एजेंडा: नागरिकता संशोधन विधेयक पर हो पुनर्विचार

नई दिल्ली, 14 जून 2019, लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जनवरी में देश के पूर्वोत्तर राज्यों में नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन देखने को मिले. नागरिकों और विभिन्न जातीय-धार्मिक समूहों के अलावा विपक्षी पार्टियों, यहां तक कि बीजेपी नेता और इसकी सहयोगी पार्टियों ने भी इसका विरोध किया. इन लोगों के मन में कई तरह के डर थे, जैसे कि इस विधेयक से क्षेत्र में डेमोग्राफिक बदलाव आएगा, कानून के समक्ष समता के अधिकार का उल्लंघन होगा या नागरिकों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव होगा. उदाहरण के तौर पर, असम में यह सवाल उठता रहा कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक 1985 के असम एकॉर्ड का उल्लंघन करता है. सरकार की ओर से तैयार किया जा रहा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) और असम एकॉर्ड- ये दोनों धर्म को आधार नहीं मानते. ये दोनों किसी को भारतीय नागरिक मानने या किसी को विदेशी घोषित करने के लिए 24 मार्च, 1971 को आधार मानते हैं. संशोधन का उद्देश्य नागरिकता (संशोधन) विधेयक से यह साफ नहीं होता कि जिन लोगों को नागरिकता दी जानी है या जिन्हें नहीं दी जानी है, उसका आधार क्या है. किसी भी विधेयक में एक खंड में 'उद्देश्यों और कारणों का ब्यौरा' (Statement of Objects and Reasons) होता है, जिसमें विस्तार से बताया जाना चाहिए कि यह संशोधन क्यों और किस उद्देश्य के लिए किया जा रहा है, लेकिन इस विधेयक में ऐसा नहीं हुआ. एक संयुक्त संसदीय समिति (JPC) ने इस संशोधन का ढाई साल तक निरीक्षण किया और इस साल जनवरी में रिपोर्ट सौंपी. इस समिति ने विधेयक के उद्देश्य के बारे में स्पष्टीकरण मांगा तो सरकार की ओर से दो बातें कही गईं: (a) संशोधन के लिए जारी 'कैबिनेट नोट' में इसका 'जिक्र' किया गया है. (b) गृह मंत्रालय के 2015 और 2016 के नोटिफिकेशन में इसके बारे में बताया गया है. जेपीसी ने बिना सवाल किए ये स्पष्टीकरण स्वीकार कर लिए. यह हैरानी की बात है कि कैबिनेट नोट सार्वजनिक कागजात नहीं होते और उनमें दिए गए तथ्यों के बारे में सबको पता नहीं होता,जबकि कानून में कोई भी संशोधन होता है तो इसकी व्याख्या और स्पष्टीकरण विधेयक के 'उद्देश्यों और कारणों का ब्यौरा' खंड में दिया जाता है. दूसरे, गृह मंत्रालय के नोटिफिकेशंस में लाभार्थियों का नया समूह बनाने के लिए सिर्फ 'धार्मिक उत्पीड़न' का जिक्र है. ये नोटिफिकेशंस 'पासपोर्ट (एंट्री इनटू इंडिया) 1950 में संशोधन करके दो पड़ोसी देशों बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले छह अल्पसंख्यक समूहों (हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को जोड़ते हैं और कहते हैं 'ये समूह धार्मिक उत्पीड़न या धार्मिक उत्पीड़न के डर से भारत में शरण लेने को मजबूर हैं.' इसकी व्याख्या कहीं नहीं की गई है कि किस आधार पर, किन आंकड़ों या विश्लेषणों के सहारे यह निष्कर्ष निकाला गया कि कुछ निश्चित देशों के निश्चित धार्मिक समूह धर्म के आधार पर प्रताड़ित किए जा रहे हैं और दूसरे प्रताड़ित नहीं किए जा रहे हैं. दरअसल, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने स्वीकार किया था कि नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन से किसे लाभ मिलेगा, इस बारे में कोई प्रामाणिक सर्वे या सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हालांकि, उन्होंने कहा कि संबंधित अल्पसंख्यक समूहों से करीब 30,000 लोग हैं जो भारत में लंबी अवधि के वीजा पर रह रहे हैं, उन्हें लाभ मिलेगा. जेपीसी की रिपोर्ट भी इस तथ्य की पुष्टि करती है. यह इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) के हवाले से कहती है कि संशोधन के बाद जो नागरिकता चाहते हैं, उन्हें साबित करना होगा कि वे धार्मिक उत्पीड़न के चलते भारत आए हैं. लाभार्थियों का वर्गीकरण और तार्किक विभेद (Intelligible Differentia) नागरिकता (संशोधन) विधेयक के सामने सबसे बड़ी चुनौती संविधान के अनुच्छेद 14 में दिए गए समानता के अधिकार से मिलेगी, जो कहता है, 'राज्य भारतीय सीमा के भीतर किसी को भी कानून के समक्ष समता और कानूनी संरक्षण से वंचित नहीं करेगा.' नागरिकता (संशोधन) विधेयक को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और जैसे ही संसद यह विधेयक पास करेगी, इस याचिका पर सुनवाई होगी. नागरिकता (संशोधन) विधेयक को इस साल जनवरी में लोकसभा में पास कर दिया गया था, लेकिन राज्यसभा में यह पास नहीं हो सका था. पिछली लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह विधेयक स्वत: रद्द हो गया. अब इसे फिर से पेश करने की जरूरत होगी. अनुच्छेद 14 को लेकर सजग JPC ने कानूनी मामलों के विभाग से स्पष्टीकरण मांगा था. विभाग ने बताया कि इस तरह का कोई उल्लंघन नहीं होता है. विभाग ने राम कृष्ण डालमिया बनाम जस्टिस एसआर तेंदुलकर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया है, जो 'अनुच्छेद 14 के वास्तविक अर्थ और संभावनाओं' पर केंद्रित है. यह फैसला किसी तरह के वर्गीकरण में उपचार की समानता के लिए दो पूर्व शर्तें रखता है: (i) इसका आधार तार्किक विभेद (intelligible differentia) होना चाहिए, जो किसी भी लाभार्थी समूह में जो रखे गए हैं और जो नहीं रखे गए हैं, उनमें तार्किक भेद करता है. (ii) यह विभेद जो भी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए किया गया है, इस विभेद का इसके लक्ष्य से एक 'तार्किक संबंध' (rational relation) होना चाहिए. JPC ने यह जानने अथवा इस पर स्पष्टीकरण मांगने की कोशिश नहीं की कि क्यों और कैसे लाभार्थियों के समूह में मुस्लिमों को शामिल नहीं किया गया और क्या यह अनुच्छेद 14 का भेदभावपूर्ण उल्लंघन नहीं है. JPC ने कानूनी विभाग का साधारण सा जवाब स्वीकार कर लिया कि यह भेदभावपूर्ण नहीं होगा. यह सर्वविदित है कि म्यांमार में रोहिंग्या (इस साल जनवरी में इनमें से कुछ बांग्लादेश भेज दिए गए.), पाकिस्तान में अहमदिया, बांग्लादेश में शिया और अफगानिस्तान में (Hazaras) मुस्लिम धार्मिक प्रताड़ना झेल रहे हैं. भारतीय मुसलमान जो बंटवारे के समय मुहाजिर के रूप में पाकिस्तान गए थे. आज वे भी वहां धार्मिक उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं. इसी तरह JPC ने यह भी सवाल नहीं किया कि श्रीलंका और म्यांमार को इस समूह से बाहर रखना क्या अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है. इसने गृह मंत्रालय का स्पष्टीकरण स्वीकार कर लिया जिसमें कहा गया है कि इन देशों से आए शरणार्थियों से जुड़े मामलों को 29 दिसंबर, 2011 को जारी स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) के जरिए किया जा रहा है, यह मसला नागरिकता (संशोधन) विधेयक से अलग है. 2011 के SOP में यह अनुबंध है कि जिन मामलों में प्रथमदृष्टया यह प्रतीत होता है कि किसी के साथ जातीय, धार्मिक, लैंगिक, राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक समूह, सामाजिक समूह, राजनीतिक विचार आदि के कारण उत्पीड़न किया जा रहा है, तो ऐसे लोगों के लिए राज्य सरकारें सुरक्षा जांच के बाद लंबी अवधि के वीजा के लिए गृह मंत्रालय को सिफारिश भेज सकती हैं. यानी SOP लंबी अवधि के वीजा के बारे में अनुबंध करता है न कि नागरिकता के बारे में. श्रीलंका और म्यांमार के लोगों को नागरिकता न देकर सिर्फ लंबी अवधि का वीजा देना समझ से परे है. इन तथ्यों को देखते हुए यह स्पष्ट नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तार्किक विभेद (Intelligible Differentia) को बनाए रख पाना कैसे संभव होगा. अब आगे क्या स्पष्ट है कि सरकार को नागरिकता (संशोधन) विधेयक को संसद में दोबारा पेश करने से पहले इसकी एक बार और समीक्षा करनी चाहिए. नागरिकता की पुनर्परिकल्पना करके सरकार उन सवालों से बच सकती है जो विधेयक पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर सुनवाई के दौरान उठने वाले हैं. इसके अलावा सरकार इस विधेयक को 'वसुधैव कुटुंबकम' के भारतीय विचार के और करीब भी ला सकती है.

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