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अतीत के तीन बोझ के कारण विदेश नीति को प्रभावी बनाने में भारत को करना पड़ा कठिन संघर्ष: जयशंकर

नई दिल्ली भारत अतीत की गलतियों के कारण विदेश नीति के क्षेत्र में अपना वो प्रभाव कायम करने में असफल रहा जिसका यह देश हकदार था। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तीन बड़ी गलतियों का हवाला देते हुए कहा कि अब भारत को विदेश नीति में धाक जमाने के लिए पराक्रम के साथ कड़ा संघर्ष करना पड़ा जो पहले आसानी से हो सकता था। जयशंकर ने बंटवारा, आर्थिक सुधार में देरी और परमाणु विकल्प संबंधी लंबी कवायद को विदेश नीति पर अतीत के तीन बड़े बोझ के रूप में पेश किया। 7 सितंबर को बाजार में आ जाएगी किताब पूर्व राजनयिक एवं विदेश मंत्री ने यह टिप्पणी अपनी नई पुस्तक 'द इंडिया वे : स्ट्रैटजीज फॉर एन अनसर्टेन वर्ल्ड' में की है। इस पुस्तक का विमोचन 7 सितंबर को होना है। जयशंकर ने इसमें भारत को पेश आने वाली चुनौतियों और संभावित नीतिगत प्रतिक्रिया का उल्लेख करते हुए कहा कि 2008 में वैश्विक आर्थिक संकट से लेकर 2020 की कोरोना वायरस महामारी की अवधि में विश्व व्यवस्था में वास्तविक बदलाव देखने को मिले हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि विश्व व्यवस्था में भारत ऊपर जा रहा है, ऐसे में उसे अपने हितों को न सिर्फ स्पष्टता से देखना चाहिए बल्कि प्रभावी ढंग से संवाद भी करना चाहिए। जयशंकर ने गिनाए विदेश नीति पर अतीत के ये तीन बोझ विदेश मंत्री ने कहा कि भारत की विदेश नीति अतीत के तीन बोझ ढो रही है। उन्होंने कहा, 'इसमें से एक 1947 का विभाजन है जिसने देश को जनसंख्या और राजनीतिक, दोनों के लिहाज से छोटा कर दिया। अनायास ही चीन को एशिया में अधिक सामरिक जगह दी गई। दूसरा, आर्थिक सुधार में देरी रही जो चीन के डेढ़ दशक बाद शुरू हुआ । यह 15 वर्षो का अंतर भारत को बड़ी प्रतिकूल स्थिति में रखे हुए हैं।' जयशंकर ने कहा कि तीसरा, परमाणु विकल्प संबंधी कवायद का लंबा होना रहा। 'इसके परिणामस्वरूप भारत को इस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने के लिए पराक्रम के साथ संघर्ष करना पड़ा जो पूर्व में आसानी से किया जा सकता था।' विदेश नीति को लेकर उदासीन था अतीत का भारत? जयशंकर के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय संबंध अधिकतर दूसरे देशों के बारे में होते हैं लेकिन अनभिज्ञता या उदासीनता इसके प्रभावों को कम नहीं करती है। उन्होंने कहा, 'और इसलिए घटनाओं को अपने पर आने देने की बजाय इसका आकलन और विश्लेषण बेहतर है।' उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा कि विभिन्न स्तरों पर वर्षो तक अपने नेतृत्व के साथ संवाद करना इतना महत्वपूर्ण है कि इसे शब्दों में पिरोना कठिन है। इसमें बड़ी बातों में सामरिक लक्ष्यों को परिभाषित करने के महत्व, अधिकतम परिणाम को मान्यता देना और राजनीति एवं नीति की परस्पर क्रिया को सराहना शामिल है। जयशंकर ने अपनी पुस्तक को भारतीय के बीच एक ईमानदार संवाद को प्रोत्साहित करने वाली पहल बताया। प्रकाशक ने बताई पुस्तक की खासियत एक बयान में प्रकाशक हार्पर कॉलिंस इंडिया ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति और नियम बदल रहे हैं और भारत के लिए इसका अर्थ अपने लक्ष्यों की बेहतरी के लिए सभी महत्वपूर्ण ताकतों के साथ अधिकतम संबंध बनाना है। इसमें कहा गया है कि 'जयशंकर ने इन चुनौतियों का विश्लेषण किया है और इसकी संभावित नीतिगत प्रतिक्रिया के बारे में बताया है। ऐसा करते हुए वे अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों के साथ भारत के राष्ट्रीय हितों का संतुलन बनाने को काफी सचेत रहे।' इसमें कहा गया है कि जयशंकर ने पुस्तक में विचारों को इतिहास और पंरपराओं के परिप्रेक्ष्य में रखा जो फिर से उपयुक्त सभ्यतागत शक्ति के रूप में विश्व मंच पर स्थान हासिल करना चाहता है। प्रकाशक कृष्ण चोपड़ा ने कहा कि यह पुस्तक जटिल परदृश्य को स्पष्ट करती है और आगे की राह दिखाती है। इन पदों पर रह चुके हैं जयशंकर ध्यान रहे कि जयशंकर 2015-18 तक विदेश सचिव, 2013-15 तक अमेरिका में भारत के राजदूत, 2009-13 तक चीन में राजदूत, 2007-09 के दौरान सिंगापुर में उच्चायुक्त और 2000-04 के दौरान चेक गणराज्य में राजदूत रह चुके हैं। उन्होंने मॉस्को, वॉशिंगटन डीसी, कोलंबो, बुडापेस्ट और तोक्यो में भी राजनियक भूमिकाएं निभाईं। जयशंकर विदेश मंत्रालय और राष्ट्रपति सचिवालय में भी पदस्थापित थे। दो दिन पहले ही आनंद शर्मा ने साधा था निशाना याद रहे कि दो दिन पहले ही पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर दिशाहीन विदेश मंत्री करार देते हुए कई नसीहतें दे डाली थीं। शर्मा ने रविवार को जयशंकर पर निशाना साधते हुए कहा था कि बयानबाजी और ट्वीट्स से जमीनी हकीकत नहीं बदलते। विदेश नीति में गहराई होनी चाहिए। रणनीतिक साझेदारों के साथ संबंध गंभीरता की मांग करती है और इसे इवेंट मैनेजमेंट से संभाला नहीं जा सकता।

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